ईश्वर से एकरूप होना !
✍️ २१९२
विनोदकुमार महाजन
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ना मुझे संत होना है,नाही महंत !
नाही मठाधीश, अथवा नाही मठाधिपती बनना है !
ना योगी बनना है,ना महापुरुष !
ईश्वर ने जैसा बनाया वैसा
सिदासादा,भोलाभाला जीवन जीना है !
स्वच्छंद जीना है !
पशुपक्षीयों की तरह !
फिर भी मैं अमर हुं,अनादि हुं
अनंत भी मैं ही हुं !
युगों युगों से लेकर, युगों युगों तक स्वच्छंद रहनेवाला,
बंधनमुक्त मैं आत्मा हुं !
कृष्ण भी मुझमें है,राम भी है मुझमें ही,भोला शंकर भी ..निरंंतर है मुझमें !
पशुपक्षीयों में भी मैं ही हुं !
सभी सजीवों में भी मैं ही हुं !
मैं साकार भी हुं,मैं ही निराकार भी हुं !
मैं स्थुल भी हुं,मैं सुक्ष्म भी हुं !
सजीव – निर्जीवों में भी मैं ही हुं !
सगुण – निर्गुण भी मैं ही हुं !
क्योंकि मैं ही ब्रह्म हुं !
मैं ही ब्रम्हांड में व्याप्त भी हुं !
पंचमहाभूतों में भी मैं ही हुं !
सो…अहम् सो…अहम्
अहम् ब्रम्हास्मी !
आप सभी के अंदर भी मैं ही हुं !
और…?
आप सभी भी मेरे अंदर… नितदिन, निरंंतर !
इसिलिए मुझे अलग से देखने की जरूरत ही कहाँ है ?
जरा आपके अंदर तो झाँककर देखो…वही पर भी मैं ही हुं !
मैं ही हुं !
हरी ओम्
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