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दो शस्त्रों की सख्त जरूरत है !!!

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दो शस्त्रों की जरूरत है…
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कोई कल्पना विलास कहे या कोई भावनिक रचना कहे,
आखिर सत्य तो सत्य होता है।

अगर विश्व परिवर्तन की अपेक्षा करनी है तो सबसे पहले…दिमागी पटल पल उसी विषय में कल्पना चित्र अधोरेखित करना पडता है।कल्पना चित्र संकल्प में और संकल्प सिध्दीयों में बदल जाता है…तब परिवर्तन की परीभाषा अधोरेखित होती है।

सबसे पहले मनोवैज्ञानिक तरीकों से जीत के लिए और अपेक्षित परिणामों के लिए, सुप्त संकल्पना अत्यंत महत्वपूर्ण होती है।
यूध्द पर निकला है,और शत्रू कौन है यही पता नही…
तो ऐसी मनोदशा में युध्दमैदान पर कोई उतरता है तो…
संभवत: यशप्राप्ती की अपेक्षा करना गलत होगा।

जो कोई सुयोग्य संकल्पना आगे आती है और उसे कार्यान्वित करने के लिए योजनाएं बनाना आरंभ होता है तो…और उसके अनुसार एक यशस्वी रणनीती बनती है तो…
मनभेद, मतभेद, मतमतांतर या आशंका स्वाभाविक है।मगर हेतुपुरस्सर बुध्दीभेद द्वारा सफलता के बारे में जानबुझकर रोडा अटकाना,और कार्य सफलताओं में अनेक बाधाएं और विघ्न, विघ्न संतोषी लोगों द्वारा अथवा समाज के कुछ विघातक शक्तियों द्वारा की जा सकता है।

इसिलिए हर चक्रव्यूह भेदन की तगडी रणनीती अगर आपके दिमाग में ,मनोमस्तिष्क में पक्की तय है ..तो…आपकी जीत भी पक्की है।
फिर रास्ते में कितनी भी मुसिबतें आयेगी अथवा बाधाएं आयेगी, अथवा हतोत्साहीत करनेवाले बहुमात्रा में होंगे,मिलेंगे…
तो भी मनोमस्तिष्क पर आपने जीत की जो परिभाषा बनाई है उसे कोई भी रोक नही सकता है।

विशेषतः पवित्र उद्देश्य और उसकी पूर्ती के लिए, कठोर तपश्चर्या द्वारा ईश्वरी सहायता होगी…
तो जीत और आसान होगी।

सबसे पहले और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है की अगर मनोवैज्ञानिक तरीकों से अगर आपने अपने मनोमस्तिष्क पर जीत की पक्की परिभाषा अग्रेसित की है,और उसे ईश्वरी सहायता भी है…
तो सौ प्रतिशत यूध्द जीता ही जायेगा।फिरक्षवह युध्द कौनसा भी हो।

और जीवन एक युध्द ही है।अपने अपने क्षेत्र में,जीतने के लिए…अग्रसर भी है।

प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष युद्ध तो नितदिन हर एक का,अलग अलग क्षेत्रों में चल ही रहा है।

महाभारतकाल में द्रोणाचार्य, भीष्माचार्य, कृपाचार्य जैसे अनेक बुजुर्गों के अनुभव भी थे,कौरव पक्ष के लिए आशिर्वाद भी थे,अचूक रणनीति भी थी..और सौ प्रतिशत जीतने की संकल्पना भी अधोरेखित थी।
और परमात्मा भगवान श्रीकृष्ण उनके दिमाग की, यही संकल्पना को सौ प्रतिशत जानता भी था।इसीलिए श्रीकृष्ण ने जो जीत की जबरदस्त रणनीति अपने दिमाग में सबसे पहले ही बनाई थी,
उसकी काट…उन बुजुर्ग आचार्यों के पास नही थी।
और सबसे महत्वपूर्ण बात यह भी थी की…इन आचार्यों ने आसुरीक संपत्तीयों का सहयोग किया था।

इसीलिए जहाँ सत्य होता है
जीत उसी की पक्की होती है।
क्योंकि जीत का रखवाला खुद परमात्मा होता है।
जो समय की माँग के अनुसार समय समय पर विविध रूपों में प्रकट होता है।

इसी विषय पर संबंधित आजके कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न, जिसके उत्तर आपको देने है।
( अगर लेख सचमुच में कोई पढ रहा है तो…)

१) क्या हिंदुराष्ट्र की संकल्पना गलत है ?
२) क्या हिंदुराष्ट्र बनेगा ?
३) क्या अखंड भारत बनेगा ?
४) क्या हिंदुमय विश्व बनेगा ?

यह भी एक युध्द ही है।
धर्म युद्ध।
मगर यह युध्द अब युध्दमैदान के बजाए…
मनोमस्तिष्क पर अधोरेखित करके,जीत की तगडी रणनीती बनाकर आगे बढेंगे…
तो…जीत की यथोचित संकल्पना करना गलत है ?

सबसे महत्वपूर्ण बात यह है की
ऐसी संकल्पना करना और अपेक्षित परिणाम के लिए उसी दिशा में चौबिसों घंटे प्रयासरत रहना और तगडी रणनीती के अनुसार कार्य आगे बढाना ही योग्य होगा।

दिमाग में कोई संकल्पना ही नही है..तो यश की परिभाषा कैसे संभव होगी ?

और यह युध्द ब्रहास्त्र,पाशुपतअस्त्र या नारायण अस्त्र द्वारा ही जीत जाना संभव है , ऐसा नही है।क्योंकी ऐसे अस्त्र कम समय में प्राप्त करना भी असंभव है।क्योंकी उसी देवता की कृपा और उसीके अनूसार अपेक्षित परीणाम.. यह सौ साल की आयुर्मयादा में असंभव है।

हां अगर जीतना ही है तो अस्त्र और शस्त्र की तो जरूरत लगेगी ही लगेगी।मगर यह अस्त्र और शस्त्र दृष्य स्वरूप में मौजूद नहीं होंगे।तो यह गुप्त रूप में मनोमस्तिष्क में … ” सेट ” …
किए होंगे तो…?
जीत की परिभाषा और अपेक्षा कितने प्रतिशत होगी ?

और आज ” अग्नेयास्त्र ” के साथ साथ …
यथोचित सुक्ष्म और तीक्ष्ण बुद्धी और धन का शस्त्र बहुत महत्वपूर्ण होता है।

अग्नेयास्त्र तो ईश्वर खुद ही किसी के दिमाग में….पहले से ही…सेट …करता होगा।
और यथोचित बौध्दिक शस्त्र के आधार पर,योग्य रणनीती द्वारा जीत की परिभाषा अधोरेखित की जा सकती है।
और बौध्दिक शस्त्र के साथ साथ धन की शक्ती का प्रयोग भी विविध माध्यमों द्वारा जीत तक पहुंचाने के लिए सहाय्यक होगा ही होगा।

मगर होता यह है की,..बौध्दिक क्षमता तो है मगर धन का अभाव है,अथवा धन तो बहुमात्रा में है..मगर बुध्दी का अभाव है…तो…अपेक्षित जीत कैसे संभव होगी ?

दोनों शस्त्रों की,धन और बुध्दी, एकसाथ सख्त और तुरंत जरूरत होगी।
जब दोनों एकसाथ आयेंगे और दोनों विश्वस्तर पर जीत के लिए एकसाथ भ्रमण करेंगे..तो…
यथोचित यश की अपेक्षा भी होगी और यश की संभावना भी बढेगी।
और सुयोग्य रणनीती द्वारा और ईश्वरी सहायता और ईश्वरी वरदान द्वारा अपेक्षित परिणाम भी मिलेंगे।

फिर बुध्दीभेद करनेवाले अथवा बाधाएं उत्पन्न करनेवाले भी धाराशाई ही होंगे।
और दूर से हँसकर तमाशा देखनेवाले हमारे ही विघ्नसंतोषी लोगों को प्रत्युत्तर भी मिलेगा।

क्या यह असंभव है ?
आपको क्या लगता है ?
आत्मा पर हाथ रखकर उत्तर तो देना ही पडेगा।

रही बात ईश्वरी कार्य के लिए सहयोग करनेवालों की।
कितने लोग तुम्हारे साथ आयेंगे ?
या कितने लोग तुम्हारा साथ देंगे ?
विशेषतः हमारे ही लोग ?

उत्तर है…ना के बराबर।
शायद कोई साथ देनेवाला भी नही मिलेगा।

मगर जब ईश्वर की ही कार्यसफलता की इच्छा होती हे.. तो कौन रोकेगा ?
अपेक्षित परिणाम तो मिलकर ही रहेंगे।

और अगर ईश्वर की ही इच्छा नही होगी ?
तो…?
वासुदेव बळवंत फडके की तरह अचूक, भरपूर प्रयास करनेपर भी यश…नही मिलेगा।

मगर विश्व परिवर्तन का आज का जबरदस्त माहौल और हर वैश्विक मानव समुह की,सुप्त क्रांती की लहर लाने की तीव्र इच्छाशक्ती देखेंगे तो…?
पूरक माहौल भी बनेगा।

ईश्वरी इच्छा भी हमें सहाय्यक तथा अनुकूल भी होगी।
और वैश्विक क्रांती होकर रहेगी।

तो…
हिंदुराष्ट्र निर्माण
अखंड भारत
और
हिंदुमय विश्व की संकल्पना क्या गलत होगी ?
उत्तर आपको ही देना है।

सबसे महत्वपूर्ण और मजेदार बात यह है की,
हमारे बंधू, हिंदु ही …कितने प्रतिशत इस कार्य को पूर्ण करने के लिए इच्छुक है ?
शायद कुछ गिनेचुने।

ध्येयवादी और ध्येयवेडे।
दिनरात अत्यंत हालअपेष्टाओं का सामना करते हुए भी,

अंदर की क्रांती ज्योत
जींदा रखनेवाले जींदादील व्यक्ती ही इस संकल्पना को मूर्त स्वरूप दे सकते है।

नही तो हमारे हिंदुओं का चल ही रहा रहा है…एक मजेदार खेल…

व्हाटसअप व्हाटसअप का
और फेसबुक फेसबुक का खेला।

मैदान में भयंकर विनाशकारी शत्रू सर्वनाश के लिए खडा है…

और हमारा व्हाटसअप, फेसबुक पर हरदिन का जीत का मनोरंजक खेल जारी है।
ना ही उसे दिशा है और ना ही व्यापक रणनीती।
और नाही कोई पक्की जीत दिलाने वाला धर्मयोध्दा।

और हिंदु राष्ट्र निर्माण की अभिलाषा…।
कैसे पूरी होगी ?

जो कुछ गिने चुने लोग यह सपना देखकर, अनेक मुश्किलों का सामना करते,दिनरात एक करके आगे बढ रहे है…
या तो उनका साथ हमारे ही लोगों द्वारा …नही है…
अथवा ध्येयवादी व्यक्तियों का हमारे ही लोगों द्वारा कुत्सित हेतू से..हँसी मजाक उडाना, नितदिन हो रहा है…
तो उसे कौन रोकेगा ?
यही हो रहा है ना ?

भगवे वस्त्र का और उसे धारण करनेवालों का आदर करने के बजाए, उसको पिडा, नरकयातना देना,हमारे ही लोगों द्वारा अगर तय है तो…???
क्रांती की लहर भी कौन लायेगा?
क्यों लायेगा ?
और किसके लिए लायेगा ?

और भगवे का और भगवान का अपमान होनेपर भी हमारा खून नही खौलता है…तो…?
ऐसे मृतप्राय समाज से कौनसी और कैसी अपेक्षा करेंगे ?

मूगल आये लूटकर चले गये,
अंग्रेज आये लूटकर चले गये
और हमारे लोगों का मनोमस्तिष्क स्वार्थ भाव में मस्त।

धन तो चाहिए।
मगर कार्य सफलता भी चाहिए।
और स्वाभिमानी समाज निर्माण के लिए धन के साथ कार्य सफलता और जीद्द भी चाहिए।

जो यहुदियों में दिखाई देती है।
हम कहाँ है ?

हमारे ही लोगों को हमारे उज्वल भविष्य की चिंता नही है..तो..आखिर इस भयंकर बढती बिमारी का इलाज भी क्या है ?
समाज की मानसिकता ही विनाशकारी बनती जा रही है,अथवा विशिष्ट उद्देश से षड्यंत्रकारीयों द्वारा बनाई गई है तो आखिर क्या करें ?

कितने लोग,विशेषतः हमारे ही लोग ,ऐसे समाज जागृती के लेख पढेंगे ? कितने लोग सहयोग के लिए आगे आयेंगे ?
कितने लोग मनन,चिंतन करेंगे ?

स्वाभिमान शून्य, लाचार समाज का अस्तित्व ना के बराबर होता है।और अस्तित्व शून्य की आदत सी समाज को लग गई है,और उसका गम किसिको नही है…
तो…?
ऐसे समाज को कौनसे भाषा में परिभाषित करना चाहिए ?

किसी व्हाटसअप ग्रुपपर अगर कोई महात्मा समाजपरिवर्तन हेतू सभी को परिचय माँगता हो…
और उस महात्मा को ना के बराबर प्रतिसाद मिलता है ?
तो…???
हम कितने प्रतिशत लोग जींदा है ?

संपूर्ण सहयोग की बात तो दूर।

और ऐसे मरे हुए अथवा निद्रीस्त समाज को कौन नवसंजीवनी देने का भी प्रयास करेगा ?
थकहार कर बेचारा दूर चला जायेगा।
और एकांत में बैठकर,ईश्वर से बाते करते करते अपेक्षित परिणाम की अथवा अपेक्षित रणनीती बनाता रहेगा।

और शायद जीत भी जायेगा।
देखते है,ईश्वर की क्या इच्छा है ?
भविष्य में क्या होनेवाला है ?

इतना तो पक्का तय है की,
भविष्य में विश्वपटल पर जरूर ही कोई जबरदस्त उथल पुथल होनेवाली ही है।
ऐसे अदृष्य संकेत तो…
आत्मचेतना जागृती वालों को अवश्य मिलते ही होंगे।

समय करवट बदल रहा है।

हरी ओम्
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विनोदकुमार महाजन

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