प्रेम और नफरत
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प्रेम ईश्वर के ह्रदय से उत्पन्न होता है, इसीलिए प्रेम सदैव पवित्र और अमृतसमान होता है।
तो नफरत, द्वेष राक्षसों के ह्रदय से उत्पन्न होता है और यह विषसमान होता है,और इसे हजम करना भयंकर कठीण होता है।
मगर आज के भयंकर कलियुगी माहौल में,जहाँ इंन्सानों के अंदर जादा मात्रा में नफरत का ही जहर भरा पडा हुवा है,तो प्रेम का अमृत कहाँ मिलेगा ?
हर जगह नफरत का जहर मिलेगा और प्रेम के लिए तरसना ही पडेगा।
पवित्र, निस्वार्थ, ईश्वरी प्रेम ही सच्चा प्रेम होता है।
जो निस्वार्थ भाव से सभी पर प्रेम करता है,खुद ईश्वर भी उसी पर प्रेम ही करता है।
अनेक ठोकरें खाने के बाद भी सह्रदयी व्यक्ति सभीपर पवित्र प्रेम ही करता रहता है।
मगर राक्षसों को प्रेम की भाषा नहीं समझती है।उनके लिए कठोर दंड की ही भाषा योग्य होती है।
इसीलिए भगवान श्रीकृष्ण की प्रेम की भाषा दुर्योधन को कैसे समझ में आयेगी ?
आखिर भगवान श्रीकृष्ण को भी दुर्योधन को और ऐसे अनेक उन्मत्त राक्षसों को दंडित ही करना पडा था।
पशुपक्षियों को भी प्रेम की भाषा समझ सकती है।मगर दुष्ट लोग हमेशा नफरत ही फैलाते है।दुष्ट लोग उपर से प्रेम की भाषा भी अगर करेंगे तो भी उनके अंदर भयंकर जहर ही होता है।
इसीलिए दुष्टों से सदैव सावधान और दूर ही रहना चाहिए।इसिमें ही हमारी भलाई होती है।
हरी ओम्
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विनोदकुमार महाजन