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जब भगवान श्रीकृष्ण की आत्मा से हम एकरूप हो जाते है…

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जब भगवान श्रीकृष्ण से हम आत्मा से एकरूप हो जाते है….

इसी विषय में एक प्रश्न,
ईश्वरी अवतार कार्य समाप्त होने के बाद,जब अवतारी पुरूष देहत्याग करते है…तो फिरसे वही देह धारण कर सकते है ?

ऐसी मृत्यु निमीत्यमात्र होती है।
मतलब वही अवतार अगर जरूरत पडेगी तो फिरसे पंचमहाभुतों का देह धारण कर सकते है।अनेक सिध्दपुरूष भी देहत्यागने के बाद फिरसे वही देह धारण करके दर्शन दे सकते है।

सज्जनगड के रामदास स्वामी अथवा शेगांव के गजानन महाराज जी ने देहत्यागने के बाद भी कुछ भक्तों को फिरसे देह धारण करके दर्शन दिए है।
मुझे दोनों अवतारी पुरूषों की आत्मानुभूति हुई है।और दोनों महापुरुषों ने मेरे सरपर वरदहस्त रखे है।

मेरा खुद का भी एक अद्भुत अनुभव दे रहा हुं।मेरे बचपन में मेरी माँ का देहावसान हो गया।माँ सामने न दिखने की वजह से उसकी याद में मैंने खाना पिना सब कुछ छोड दिया था।दिनरात उसकी याद में मैं केवल रोता ही रहता था।
मुझे ऐसी भयंकर हालत में देखकर मेरे दादाजी,मेरे आण्णा बहुत परेशान हो गये।उन्होने मुझे मेरे माँ के पिताजी के घर में,तांदुलवाडी ले गए।मगर फिर भी मैं खानापिना छोडकर,माँ की याद में रोता ही रहता था।मेरे आण्णा भी भयंकर परेशान हो रहे थे,मेरी यह भयंकर हालत देखकर।

फिर मुझे उन्होंने अपने गाँव को वापिस ले जाने का निर्णय लिया।
तांदुलवाडी से वाशी का लगभग चार कि.मी.का पैदल सफर तब करना पडता था।तब वाशी से बसें मिलती थी।
वाशी जाने के लिए जब हम पैदल निकले तो दादाजी मुझे कंधे पर बिठाते थे।कभी कभी निचे छोडते थे।

जब हम एक नदी के नजदिक पहुंचे तो…
एक आश्चर्य हुवा,मेरी माँ,मेरी माई…मृत्यु के बाद भी पंचमहाभूतों का देह धारण करके,मेरे सामने साक्षात आ गई।मेरे सरपर हाथ फेर दिया।और मुझे बोली,

अब मेरी याद में कभी भी रोना नहीं।मैं अब तुझे तेरे आण्णा के हाथों में सौंपकर जा रही हुं।

और धिरे धिरे मेरी माँ मेरी नजरों से ओझल होती चली गई।

और उसके बाद मेरा रोना भी बंद हुवा।और आजतक उसकी याद भी नहीं आई।

मेरा जनमदिन, विजयादशमी से पहले दिन नवमी को हुवा है।अगर मेरी माँ खुद सिध्दीदात्री ही है…
तो साक्षात उसी तेजस्वी माँ का मैं भी तेजस्वी बेटा ही हुं।तेजस्वी ईश्वर पुत्र ही हुं।तभी तो मेरी माँ ने मुझे उसकी मृत्यु के बाद भी पंचमहाभूतों का देह धारण करके दर्शन भी दिए है।

और अगर जरूरत होगी तो मेरी माँ मुझे फिरसे दर्शन भी दे सकती है।

और संयोग से मेरे दादाजी ही मेरे सद्गुरु हो गये।और उनके देहत्यागने के बाद भी मुझे उन्होंने दृष्टांत देकर,
गायत्री मंत्र की दीक्षा भी दी है।

इसी प्रकार से ,दूसरा एक प्रश्न….
क्या हम अपने आराध्य देवता से एकरूप होने के बाद,उसी देह में परकाया प्रवेश कर सकते है ? या फिर वही देवता हमारे अंदर परकाया प्रवेश कर सकती है ?

आखिर अपनी अपनी आत्मानुभूति होती है।
और ऐसी उच्च आत्मानुभूति के लिए सद्गुरु कृपा बहुत जरूरी होती है।

एक दिन मैंने भी भगवान श्रीकृष्ण को बस्स् एक प्रश्न पुछ डाला,
हे मेरे प्रभु ,
आज हमें तेरे कौनसे रूप की पूजा करनी चाहिए ?
प्रेम से बंसी बजाने वाला बंसीधर ?
या फिर हाथ में सुदर्शन चक्र लेकर उन्मत्त पापीयों का सर्वनाश करनेवाला
चक्रधर ?

प्रभु बोले,
जैसी समय की जरूरत होगी,
वैसा रूप धारण करना होगा।
कभी बांसुरीवाला तो अभी सुदर्शन चक्रधारी।

साथीयों,
हमें भी भगवान श्रीकृष्ण जैसा,
जिस प्रकार का समय आयेगा, जिस प्रकार से सामने प्रसंग अथवा व्यक्ति आयेगा,
उसी प्रकार से हमें भी समय समय पर अलग अलग रूप धारण करने पडते है।

तो कभी मौन और शांत होकर,यथोचित परिणाम के लिए, समय का इंतजार भी करना पडता है।

भगवान श्रीकृष्ण को भी अपने मातापिता वसुदेव देवकी को कंस के कारागृह से छुडाने के लिए समय का इंतजार करना पड़ा था।

इसिलए साथियों,
भगवत गीता पढने से जादा अच्छा यही रहेगा की,
हमें हर पल,पग पग पर भगवत गीता आचरण में लाने की जरूरत होती है।
और इसीलिए भगवान श्रीकृष्ण से एकरूप भी होना पडता है।
तभी धर्म कार्य भी बढेगा।और धर्म की जीत भी होगी।

तो चलो साथियों,
सनातन धर्म की जीत के लिए हम सभी तेजस्वी ईश्वर पुत्र बनते है।
भगवान श्रीकृष्ण के देह,मन,बुध्दि, आत्मा से एकरूप हो जाते है।

तभी संपूर्ण विजय हमारी ही होगी।

आखिर हम सब सनातनी तेजस्वी ईश्वर पुत्र ही है।क्योंकि भगवान श्रीकृष्ण ने ही भगवत गीता में यह रहस्य हमें बताया है की,सभी मेरी ही संताने है।

हरी ओम्

विनोदकुमार महाजन

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