निरपेक्ष, समर्पित और निस्वार्थ प्रेम ही सर्वश्रेष्ठ होता है !
✍️ २२०२
विनोदकुमार महाजन
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प्रेम….
कितना पवित्र, आनंददायी शब्द !
ईश्वर के ह्रदयकमल से निर्माण होनेवाला अमृत !
प्रेम का महत्व सभी के जीवन में अद्वितीय है ! बेजोड़ है !
मगर प्रेम कैसा चाहिए ?
निष्पाप, निरपेक्ष, समर्पित प्रेम ही सच्चा प्रेम होता है ?
निस्वार्थ प्रेम जीवन को नई दिशा देता है !
और स्वार्थी, मतलबी प्रेम ?
जो राक्षसों के ह्रदय से उत्पन्न होता है ?
स्वार्थी प्रेम में नौटंकी, फरेब, धोका, विश्वासघात हो सकता है !
मगर निस्वार्थ प्रेम ?
ईश्वर से नाता जोड देता है !
क्या आज के भयंकर स्वार्थ के बाजार में, पैसों की खनखनाहट में,मेरा – तेरा के मायावी बाजार में…सचमुच में…
पवित्र, निरपेक्ष, निस्वार्थ, समर्पित प्रेम मिल भी सकता है ? मेरा – तेरा से हटकर ?
स्वार्थ – मोह से हटकर ?
दो देह मगर ? आत्मा एक !
अवर्णनीय, अद्भुत, अलौकिक प्रेम !
यहीं प्रेम दिव्यात्मानुभूती देता है ! आत्मानंद, परमानंद देता है !
खुद अस्तित्व शून्य बन जाना, एक दूसरे के आत्मा से एकरूप हो जाना !
जैसे ?
राम – हनुमान !
कृष्ण – अर्जुन !
राधा – कृष्ण !
गुरू – शिष्य !
माँ – बेटा !
कितना उच्च, पवित्र, समर्पित, निरपेक्ष, निस्वार्थ प्रेम !
हनुमानजी ने अपना ह्रदय फाडकर, ह्रदय के अंदर,
सीताराम के अद्भुत दर्शन करवायें !
आसक्ति रहीत,शुध्द – सात्विक प्रेम !
अवर्णनीय, अकल्पनीय !
अगर हमारे सद्गुरु, हमारा खुद का,ह्रदय भी चीरकर माँगेंगे तो ?
विनासंकोच,एक पल भी बिना गंवाए, उनके पवित्र चरणकमलों पर खुद का ह्रदय चिरकर,अथवा सर भी काटकर, सद्गुरु के पवित्र चरणकमलों पर समर्पित कर देना होता है !
जो मेरे सद्गुरु है,उन्हीं के चरणों में समर्पित ! मेरा कुछ था ही नहीं !
सबकुछ मेरे सद्गुरु आण्णा का है !
यहीं होता है प्रेम !
सच्चा, पवित्र, निष्पाप, निष्कलंक !
ऐसा प्रेम ? करके तो देखो !
जन्म जन्मांतर तक का,सद्गुरु का साथ,सहवास, पवित्र प्रेम महसूस करेंगे !
और ईश्वर का भी !
हरी ओम्