दुख क्यों आता है ???
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संचित कर्म या प्रारब्ध गतीअनुसार हर एक प्राणी को सुखदुख का सामना करना ही पडता है।
इसमें सुख हाथ में लगता ही नही है।कभी आता है और चला जाता है समझ में भी नही आता है।
और दुख ???
पिछा ही नही छोडता है।
हम आगे भागते रहते है,और दुख निरंतर हमारा पिछा करता रहता है।
कभी कभी दुख इतना भयंकर, अक्राल विक्राल होता है की हमारा अस्तित्व ही खतरे में पड जाता है।कभी कभी भयंकर दुख में तडपते तो रहते है -मगर दुख हलका करने के लिए,रोने के लिए भी किसिका कंधा भी नही मिलता है।
ऐसा ही होता है।मेरे साथ भी,आपके साथ भी।जीसपर भरौसा था,वह भी रुलाते है।
यही तो जीवन है।
नशीब, प्रारब्ध, संचित कर्म से,दुखों से छुटकारा पाने का एक ही रास्ता है।
मौन-शांत-स्थिर-निश्चल होकर ईश्वरी चिंतन करना,आध्यात्मिक साधना बढाना, प्रभु के शरण में जाना।
या फिर सद्गुरू के चरणों में सब समर्पित कर देना।
इससे केवल दुखों से ही छुटकारा नही मिलता है तो…नामुमकीन को भी मुमकीन में बदलने की क्षमता आती है।
और हम हमारा…नशीब भी बदल सकते है।और अनेक लोगों का सहारा भी बन सकते है।
आजमाके तो देखो।दुख में अकेले में रोने से यही बेहतर है।
सभी दुखों को मात देने का एक ही रास्ता है-
प्रभू नाम रट ले प्राणी…होगा तेरा बेडा पार।
हरी हरी:ओम।
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— विनोदकुमार महाजन।