शुद्ध आचरण…
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अखंड ईश्वरी चिंतन से आचरण शुध्द होता है।और आचरण शुध्द होनेपर आत्मशुध्दी हो जाती है।आत्मशुध्दी होने से ईश्वरी साक्षात्कार होने लगते है।
और धिरे धिरे सो…हं का ज्ञान होने लगता है।
गुरूमंत्र का जाप,प्राणायाम, ओमकार प्राणायाम द्वारा आत्मचेतना जागृती होने लगती है।और वह आत्मा पावन आत्मा या सिध्दपुरुष बन जाता है।और धिरे धिरे ईश्वरी शक्ति से एकरूप हो जाता है।
मनुष्य जन्म का यही अंतीम साध्य होता है।निरंतर साधना से इसका सही ज्ञान होकर,ब्रम्हज्ञान प्राप्ति हो जाती है।और अनेक सिध्दियां भी मिल जाती है।
अब देखते है आत्मशुद्धि क्या है।जब मैं देह नही आत्मा हुं,और युगों युगों से मैं ईश्वरी इच्छा से चैतन्य मई हुं ऐसा जब महसूस होने लगता है,तब आत्मशुद्धि होने लगती है।
मतलब उस प्राणी के आचार विचार शुध्द होने लगते है।
जैसे दुसरों के धन पर कभी भी हक ना बताना,या किसिका धन ना डुबाना।किसी का अगर एक रूपया भी हमारे पास रहता है तो वह पुण्यात्मा तुरंत उस आदमी का एक रूपया भी तुरंत वापिस कर देता है।उसकी यह धारणा बन जाती है की,अगर मैंने किसिका एक रूपया भी डुबोया,तो मुझे अगला जनम लेकर वह एक रूपया वापिस देना ही होगा।
माँसाहार, मदिरा प्राशन,झूट बोलना,किसी को फँसाना या किसी का धन डुबाना ऐसी गंदी बातों से वह पवित्र आत्मा हमेशा दूर रहता है।
परस्त्री से हमेशा दूरी रखना या किसी स्त्री की हवा भी नही लगने देना यही सब बाते आत्मशुद्धि में होती है।
व्यर्थ की बाते न करना,निरंतर साधना करते रहना,हमेशा मौन और एकांत में रहना,हो सके तो मनुष्य बस्तियों से दूर रहना,जैसे की जंगलों में रहना।
इसिलए सिध्दपुरुष हमेशा हिमालय में ही वास्तव्य में रहते है।क्योंकि मनुष्यों समुहों में रहनेपर अनेक विकार, वासना,लालसा,मोह,अहंकार निर्माण हो सकते है।
आत्मशुद्धि होने के लिए ही गंध,माला,टिका लगाना,मुर्तीपूजा,मंदिरों में जाना,तीर्थयात्रा करना,तिर्थस्नान जैसे कर्म करने पडते है।मगर जब आत्मशुद्धि हो जाती है तो ऐसे उपरी उपचारों की कोई भी जरूरत नही रहती है।आत्मशुद्धि और आत्मजागृती होनेवाला व्यक्ति अपने ही धून में,अपने ही मस्ती में और अखंड ईश्वरी चिंतन में रहती है।उसे ना योगक्षेम की चिंता रहती है,और नाही धन कमाकर ऐशोआराम की जिंदगी जिने का मोह रहता है।
मनुष्य जीवन में आत्मशुद्धि अत्यंत महत्वपूर्ण मानी जाती है।और इसीलिए शुध्द आचरण की जरूरत होती है।
हरी ओम।
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विनोदकुमार महाजन।